बाल एवं युवा साहित्य >> एक डर पाँच निडर एक डर पाँच निडरसत्य प्रकाश अग्रवाल
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बाल उपन्यास, इसमें बच्चों की अपनी समस्याएँ हैं, अपनी भावनाएँ हैं, अपने कार्य-कलाप हैं...
Ek Dar Panch Nidar
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बाल-उपन्यास में यह उपन्यास एक नवीनतम कड़ी है। बाल-उपन्यासों से यह आशा की जाती है कि बच्चे उन्हें पढ़ेंगे। आम तौर से इसका एक सस्ता-सा नुस्खा अपना लिया जाता है। पंचतंत्र, हितोपदेश, ईसप की कहानियों आदि की कुछ ईंटें लीं—जादू की छड़ी या ऐसी ही कोई चीज़ ली—बच्चों को एक ऐसी दुनिया में पहुँचाने का इंतजाम कर दिया, जो कहीं नहीं होती, कभी नहीं होगी। उनकी आकांक्षाओं और कल्पनाओं के साथ खूब खेला गया और उन्हें इतना ऊँचे चढ़ा दिया गया कि नीचे गिरते ही वे चकनाचूर हो जाएँ इन कल्पनाओं को, स्वप्नों को सदा एक जीती-जागती दुनिया में आना ही पड़ता है—जब वे बड़े होते हैं, तब हम उनके लिए इस कठोर संसार की यातनाओं को लिये तैयार बैठे रहते हैं। मैं कभी नहीं समझ सका कि जादू-टोने की इन कहानियों के जो रूपान्तर हिन्दी में प्रवेश करते जा रहे हैं और बड़े परिमाण में कर भी चुके हैं, उनसे बच्चों के भविष्य का क्या भला होता है !
इसीलिए इस उपन्यास को एक नवीनतम बाल-उपन्यास के रूप में देखा है। यह उस जादू-टोने के वातावरण से भिन्न है, असंभावनाओं से परे है, इसी दुनिया की वस्तुओं को चित्रित करता है। इस उपन्यास में बड़ों की उन नैतिक धारणाओं को बच्चों के दिमागों में ठूँसने की कोशिश नहीं है, जिनका दिवाला स्वयं बड़ों के यहाँ निकल चुका है ! इसमें बच्चों की अपनी समस्याएँ हैं, अपनी भावनाएँ हैं, अपने कार्य-कलाप हैं। पाँच छोटे-छोटे बच्चे बेंतू मास्टर से घबराकर अपनी एक बाल-सुलभ योजना बनाते हैं और चुपके-से घर से निकल पड़ते हैं—एक नई दुनिया बसाने के लिए, जहाँ बेंत नहीं है। उनमें साहस है, शौर्य है, भोलापन है, प्रेम है और वे लाखों नन्हें-मुन्नों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भूतों को वे अपना दोस्त बनाना चाहते हैं, क्योंकि इस दुनिया के ‘बड़े’ उन्हें भूतों से भी ज्यादा खतरनाक लगते हैं !
हिन्दी के बाल-लेखको का कोई बहुत सुन्दर मौलिक उपन्यास मेरी नज़र से नही गुजरा था। विदेशी उपन्य़ासों के भारतीय रूपान्तर मैंने बहुत देखे हैं। हो सकता है यह मेरे ही अध्ययन की कमी हो। मेरे लिए वह बाल उपन्यास सर्वथा मौलिक अपूर्व पृष्ठभूमि का धनी और समर्थ उपन्यास हैं। इसके लेखक श्री सत्यप्रकाश अग्रवार नई पीढ़ी की ज्योति हैं और यह उनका पहला ही उपन्यास है। उनके हम सबको ही उच्चतर आशाएँ हैं, बल्कि स्वयं उन्हें भी अपने पर काफी भरोसा हैं। इसलिए हिन्दी के बाल-पाठक को अभी वह बहुत कुछ दे पाएँगे।
प्रस्तुत उपन्यास मैंने ‘पराग’ में एक वर्ष तक शौक के साथ धारावाही रूप में प्रकाशित किया है और ‘पराग’ के नन्हें–मुन्ने पाठकों ने इसे बेहद पसन्द किया है। इसके लिए मैं लेखक को बधाई देता हूँ।
इसीलिए इस उपन्यास को एक नवीनतम बाल-उपन्यास के रूप में देखा है। यह उस जादू-टोने के वातावरण से भिन्न है, असंभावनाओं से परे है, इसी दुनिया की वस्तुओं को चित्रित करता है। इस उपन्यास में बड़ों की उन नैतिक धारणाओं को बच्चों के दिमागों में ठूँसने की कोशिश नहीं है, जिनका दिवाला स्वयं बड़ों के यहाँ निकल चुका है ! इसमें बच्चों की अपनी समस्याएँ हैं, अपनी भावनाएँ हैं, अपने कार्य-कलाप हैं। पाँच छोटे-छोटे बच्चे बेंतू मास्टर से घबराकर अपनी एक बाल-सुलभ योजना बनाते हैं और चुपके-से घर से निकल पड़ते हैं—एक नई दुनिया बसाने के लिए, जहाँ बेंत नहीं है। उनमें साहस है, शौर्य है, भोलापन है, प्रेम है और वे लाखों नन्हें-मुन्नों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भूतों को वे अपना दोस्त बनाना चाहते हैं, क्योंकि इस दुनिया के ‘बड़े’ उन्हें भूतों से भी ज्यादा खतरनाक लगते हैं !
हिन्दी के बाल-लेखको का कोई बहुत सुन्दर मौलिक उपन्यास मेरी नज़र से नही गुजरा था। विदेशी उपन्य़ासों के भारतीय रूपान्तर मैंने बहुत देखे हैं। हो सकता है यह मेरे ही अध्ययन की कमी हो। मेरे लिए वह बाल उपन्यास सर्वथा मौलिक अपूर्व पृष्ठभूमि का धनी और समर्थ उपन्यास हैं। इसके लेखक श्री सत्यप्रकाश अग्रवार नई पीढ़ी की ज्योति हैं और यह उनका पहला ही उपन्यास है। उनके हम सबको ही उच्चतर आशाएँ हैं, बल्कि स्वयं उन्हें भी अपने पर काफी भरोसा हैं। इसलिए हिन्दी के बाल-पाठक को अभी वह बहुत कुछ दे पाएँगे।
प्रस्तुत उपन्यास मैंने ‘पराग’ में एक वर्ष तक शौक के साथ धारावाही रूप में प्रकाशित किया है और ‘पराग’ के नन्हें–मुन्ने पाठकों ने इसे बेहद पसन्द किया है। इसके लिए मैं लेखक को बधाई देता हूँ।
सम्पादक ‘पराग’,मुंबई
एक डर पाँच निडर
‘‘टन्....टन्....टन्...टन्...’’ प्राइमरी स्कूल की छुट्टी की घण्टी बज उठी। कक्षा में बैठे बच्चों ने जल्दी से डेस्क मे रखी पुस्तकों को समेटकर बस्ते में भरा, तख्ती-बुतका सँभाला और स्कूल के फाटक की ओर भागे। नन्हें भी एक हाथ से नीचे को सरकता पेटी का निकर और दूसरे हाथ से तख्ती-बुकता सँभाले फाटक पर आ खड़ा हुआ। यहाँ खड़े होकर अभी उसे अपने मोहल्ले के चार साथियों का इन्तजार और करना था। उसकी कक्षा का कमरा स्कूल के फाटक से सबसे अधिक निकट था, इसलिए वह रोज़ ही फाटक पर पहले पहुँच जाता था और अन्य चारों साथियों के आने तक इन्तजार करता था। यह इन्तजार उसे बहुत बुरा लगता था। पर पाँच बच्चों के एक ही मोहल्ले में रहने के कारण उनके माता-पिता ने आदेश दे रखा था कि सब साथ-साथ ही स्कूल जाया करें और साथ-साथ स्कूल से लौटकर आया करें।
नन्हें को फाटक पर खड़े कठिनाई से पाँच मिनट भी न हुए थे कि मुन्नी दौड़ती हुई भीड़ में से निकली और नन्हें की बगल में आकर खड़ी हो गई। मुन्नी नन्हें से एक वर्ष बड़ी थी और कक्षा में भी एक वर्ष आगे थी। मुन्नी के पीछे-पीछे मोहन धीमे-धीमे चलता हुआ आया और उन दोनों को देखकर रोब से उसने पूछा, ‘‘बिरजू और आशा अभी नहीं आए?’’‘‘वे दोनों रोज़ ही देर करते हैं, मोहन दादा !’’ मुन्नी ने तुरन्त शिकायत के स्वर में उत्तर दिया। दादा ने आँखें तरेरकर मुन्नी की ओर देखा और फिर अपने आस-पास जाते हुए लड़कों को सन्देह से निहारा कि कहीं किसी ने उसके नाम के साथ ‘दादा’ शब्द लगता तो नहीं सुन लिया। स्कूल के फाटक से निकलते बच्चे अपनी धुन में मस्त थे। उनमें से कोई यह नहीं जान सका था कि कमोहन अपने मोहल्ले में ‘दादा’ के नाम से प्रसिद्ध है।
अब तक मुन्नी अपनी गलती समझ चुकी थी। मोहन अपने मोहल्ले की टोली में तो दादा था, किन्तु स्कूल में केवल मोहन ही था। मोहल्ले की टोली के पाँचो सदस्यों में सबसे बड़ा होने के कारण और अपने स्कूल की सबसे बड़ी कक्षा में पढ़ने के कारण टोली के चारों सदस्य उसे मोहन न कहकर ‘मोहन दादा’ कहते थे। मोहन को अपने नाम के साथ ‘दादा’ शब्द का लगना बहुत भाता था। इसमें उसे गौरव का अनुभव होता था। लेकिन साथ-ही-साथ वह स्कूल में अपने नाम के साथ दादा कहलवाने से डरता भी था। उसे डर था कि कहीं उसके सहपाठी इसी ‘दादा’ शब्द को लेकर उसका मजाक न उड़ाने लगें। आज मुन्नी ने इसी शब्द का प्रयोग स्कूल में करके एक बहुत बड़ा अपराध कर दिया था। परन्तु उसने तुरन्त अपने अपराध की माफी माँग ली, ‘‘गलती हो गई, मोहन भैया। अब ऐसा नहीं कहूँगी।’’
मुन्नी के माफी माँगते ही दादा के गुस्से का पारा फौरन उतर गया। सबका ध्यान फिर बिरजू और आशा पर चला गया। वे दोनों अभी तक नहीं आए थे। नन्हे इतनी देर से इन्तजार करते-करते थक गया था। उसने एक समझदार लड़के की तरह कहा, ‘‘मोहन भैया, बिरजू और आशा का तो कुछ इलाज करना ही पड़ेगा। एक-दो दिन की बात हो तो भुगती जाए। यह तो रोज़-रोज़ का खटराग है।’’‘‘हाँ, मोहन भैया, हम तो घण्टों यहाँ खड़े उनका इन्तजार करें और वे आते ही हुक्म दें, ‘चलो’, जैसे मालिक अपने नौकरों को हुक्म देता है।’’ मुन्नी ने मुँह बनाते हुए नन्हें की बातों में नमक-मिर्च लगाई। मोहन अपनी ठोढ़ी पर हाथ रखकर सोचने लगा। टोली का दादा होने के कारण वह हर काम बुहत सोच–समझकर करता था। जब तक बात को वह तीन-चार बार मन में दोहरा नहीं लेता था, मुँह पर नहीं लाता था।
अभी दादा केवल इतना ही सोच पाया था कि वास्तव में बिरजू और आशा के देर से आने का कुछ इलाज होना चाहिए कि आशा दौड़ती हुई आई उनके पास खड़ी हो गई। तेजी से दौड़कर आने के कारण उसकी साँस फूल रही थी और वह जोर-जोर से हाँफ रहीं थी। मुन्नी उसे हाँफती देखकर बोली, ‘लो, रानीजी तो आ गई, पर बस्ते को पढ़ता छोड़ आई हैं ’’ मुन्नी की इस बात ने दादा और नन्हें का ध्यान आशा के कन्धे की ओर खींच लिया। उसके कन्धे पर बस्ता नहीं लटका हुआ था। ‘‘बस्ता कहाँ गया, आशा ?’’ दादा ने आश्चर्य से आशा की ओर देखकर पूछा। टोली का दादा होने के कारण इस तरह की खोज- खबर रखना वह अपना कर्तव्य समझता था। अब तक आशा का हाँफना रुक गया था। वह बोली, ‘‘मेरा बस्ता तो कहीं नहीं भागा जा रहा, बिरजू की चिन्ता करो। वह घर चलने को मना कर रहा है।’’
नन्हें को फाटक पर खड़े कठिनाई से पाँच मिनट भी न हुए थे कि मुन्नी दौड़ती हुई भीड़ में से निकली और नन्हें की बगल में आकर खड़ी हो गई। मुन्नी नन्हें से एक वर्ष बड़ी थी और कक्षा में भी एक वर्ष आगे थी। मुन्नी के पीछे-पीछे मोहन धीमे-धीमे चलता हुआ आया और उन दोनों को देखकर रोब से उसने पूछा, ‘‘बिरजू और आशा अभी नहीं आए?’’‘‘वे दोनों रोज़ ही देर करते हैं, मोहन दादा !’’ मुन्नी ने तुरन्त शिकायत के स्वर में उत्तर दिया। दादा ने आँखें तरेरकर मुन्नी की ओर देखा और फिर अपने आस-पास जाते हुए लड़कों को सन्देह से निहारा कि कहीं किसी ने उसके नाम के साथ ‘दादा’ शब्द लगता तो नहीं सुन लिया। स्कूल के फाटक से निकलते बच्चे अपनी धुन में मस्त थे। उनमें से कोई यह नहीं जान सका था कि कमोहन अपने मोहल्ले में ‘दादा’ के नाम से प्रसिद्ध है।
अब तक मुन्नी अपनी गलती समझ चुकी थी। मोहन अपने मोहल्ले की टोली में तो दादा था, किन्तु स्कूल में केवल मोहन ही था। मोहल्ले की टोली के पाँचो सदस्यों में सबसे बड़ा होने के कारण और अपने स्कूल की सबसे बड़ी कक्षा में पढ़ने के कारण टोली के चारों सदस्य उसे मोहन न कहकर ‘मोहन दादा’ कहते थे। मोहन को अपने नाम के साथ ‘दादा’ शब्द का लगना बहुत भाता था। इसमें उसे गौरव का अनुभव होता था। लेकिन साथ-ही-साथ वह स्कूल में अपने नाम के साथ दादा कहलवाने से डरता भी था। उसे डर था कि कहीं उसके सहपाठी इसी ‘दादा’ शब्द को लेकर उसका मजाक न उड़ाने लगें। आज मुन्नी ने इसी शब्द का प्रयोग स्कूल में करके एक बहुत बड़ा अपराध कर दिया था। परन्तु उसने तुरन्त अपने अपराध की माफी माँग ली, ‘‘गलती हो गई, मोहन भैया। अब ऐसा नहीं कहूँगी।’’
मुन्नी के माफी माँगते ही दादा के गुस्से का पारा फौरन उतर गया। सबका ध्यान फिर बिरजू और आशा पर चला गया। वे दोनों अभी तक नहीं आए थे। नन्हे इतनी देर से इन्तजार करते-करते थक गया था। उसने एक समझदार लड़के की तरह कहा, ‘‘मोहन भैया, बिरजू और आशा का तो कुछ इलाज करना ही पड़ेगा। एक-दो दिन की बात हो तो भुगती जाए। यह तो रोज़-रोज़ का खटराग है।’’‘‘हाँ, मोहन भैया, हम तो घण्टों यहाँ खड़े उनका इन्तजार करें और वे आते ही हुक्म दें, ‘चलो’, जैसे मालिक अपने नौकरों को हुक्म देता है।’’ मुन्नी ने मुँह बनाते हुए नन्हें की बातों में नमक-मिर्च लगाई। मोहन अपनी ठोढ़ी पर हाथ रखकर सोचने लगा। टोली का दादा होने के कारण वह हर काम बुहत सोच–समझकर करता था। जब तक बात को वह तीन-चार बार मन में दोहरा नहीं लेता था, मुँह पर नहीं लाता था।
अभी दादा केवल इतना ही सोच पाया था कि वास्तव में बिरजू और आशा के देर से आने का कुछ इलाज होना चाहिए कि आशा दौड़ती हुई आई उनके पास खड़ी हो गई। तेजी से दौड़कर आने के कारण उसकी साँस फूल रही थी और वह जोर-जोर से हाँफ रहीं थी। मुन्नी उसे हाँफती देखकर बोली, ‘लो, रानीजी तो आ गई, पर बस्ते को पढ़ता छोड़ आई हैं ’’ मुन्नी की इस बात ने दादा और नन्हें का ध्यान आशा के कन्धे की ओर खींच लिया। उसके कन्धे पर बस्ता नहीं लटका हुआ था। ‘‘बस्ता कहाँ गया, आशा ?’’ दादा ने आश्चर्य से आशा की ओर देखकर पूछा। टोली का दादा होने के कारण इस तरह की खोज- खबर रखना वह अपना कर्तव्य समझता था। अब तक आशा का हाँफना रुक गया था। वह बोली, ‘‘मेरा बस्ता तो कहीं नहीं भागा जा रहा, बिरजू की चिन्ता करो। वह घर चलने को मना कर रहा है।’’
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